Sacchi Baatein |सच्ची बातें |part 5|

Sacchi Baatein |सच्ची बातें |part 5|

Sacchi Baatein |सच्ची बातें |part 5|

Sacchi Baatein |सच्ची बातें |part 5|-apne ko jano kaise jane is book m btaya gaya hai

सच्ची बातें                                                                                                    21

  • वेदान्त पढ़ने से न कुछ उत्पन्न होता है, न नष्ट होता है, केवल भाँन्ति (माया-मोह) का निवारण होता है।
  • वेदान्त मत में ईश्वरीय सृष्टि का नाम जगत् है, जीव की सृष्टि का नाम संसार है। प्रत्येक व्यक्ति का संसार अलग-अलग है।
  • ईश्वरीय सृष्टि किसी ‘जीव’ के बन्धन का कारण नहीं है, जीव की मनः कल्पित अपनी सृष्टि ही ‘जीव’ के चौरासी लाख योनियों में भटकने का कारण है।
  • यदि रामायण, गीता, भागवत पढ़ने-सुनने, सत्संग तथा गुरु करने से बुद्धि में हेर-फेर (बदलाव) नहीं हुआ अर्थात् मान्यतायें नहीं बदली, भ्रान्तियाँ नहीं मिटीं, तो ये सभी कार्य बिल्कुल ‘व्यर्थ’ हो गये।
  • जब तक देह आदि में हम (मैं) बुद्धि है, अर्थात् देहाभिमान है, तब तक अहंकार बना ही रहेगा। इस मिथ्या अहंकार की वृत्ति के रहते, कोई भी जीवन्मुक्ति के परमानन्द का अनुभव नहीं कर सकता।
  • मुक्ति के अभिलाषी माने तत्वज्ञान के अभिलाषी को प्रतिबन्ध स्वयं ही हटाने पड़ते हैं । अज्ञान जन्य संस्कार मिटाकर ज्ञान जन्य संस्कार भी स्वयं ही डालने पड़ते हैं।
  • जो देह आदि (तीनों शरीरों, अन्तःकरण) को यह (इदं) के रूप में दृश्य समझते हैं, वास्तव में वे ही सच्चे विवेकी हैं।
  • देह आदि में हम (मैं) बुद्धि होना अलग चीज है, भासना अलग चीज है।
  • जिन्हें संसार से रंच मात्र भी सुखानुभव नहीं होता है, वास्तव में वे ही तल्लीनता से ब्रह्म विद्या अध्ययन करके सफल होते हैं।
  • कोई अपनी पूर्व की मान्यतायें भी बनाये रखना चाहे और तत्त्वज्ञानी भी होना चाहे, ऐसा कभी नहीं हो सकता। पूर्व की मान्यतायें तो छोड़नी ही पड़ती हैं।

सच्ची बातें                                                                                                                22

  • जैसे अन्धकार और प्रकाश एक साथ नहीं रह सकते, वैसे ही अज्ञान और ज्ञान बुद्धि (जीव) में एक साथ नहीं रह सकते।
  • जगत् व संसार जब तक मिथ्या (स्वप्नवत्) समझ में नहीं आयेंगे, तब तक मन, इनसे हटकर परमात्मा में लगेगा नहीं।
  • झूठ, बेईमानी, धोखाधड़ी, अन्याय, अत्याचार, छल-कपट तथा लोभ आदि का आचरण करते हुए, यह आशा नहीं रखनी चाहिए, कि पुनः मनुष्य शरीर और धन-सम्पत्ति मिल जायेगी।
  • जितने भी प्राणी हैं (जीव हैं), सभी अपने सत् स्वरूप के आनन्द से ही आनन्दित होते हैं। परन्तु समझते हैं कि विषय से आनन्द (सुखमजा) मिल रहा है।
  • प्रत्येक जीव की जो चाह है, उसी का नाम मुक्ति अर्थात् मोक्ष है। परन्तु अज्ञानता के कारण ‘जीव’ यह बात समझता नहीं है।
  • ब्रह्मा से लेकर कीट-पतंगा तथा जीवाणु आदि सभी शाश्वत सुख (परमानन्द) की अभिलाषा रखते हैं। दुःख कोई नहीं चाहता, इसी परमानन्द (शाश्वत सुख) की चाह का नाम मोक्ष है।
  • परमात्मभाव में जीव का स्थित हो जाना ही सच्ची समाधि है।
  • जो स्वयं को पंचभूतों से बना पुतला (देह) अथवा हड्डी, माँस, . चाम, रक्त आदि से संयुक्त शरीर मान रहे हैं। वह अध्यात्म तत्व को न  जान सकते हैं, न दूसरों को जना सकते हैं।
  • वर्णाश्रम, देह तथा उपाधि आदि के अभिमान में जो मद-मस्त हैं, उन्हें श्रद्धापूर्वक भोजन कराने व दान दक्षिणा देने से कोई पुण्य नहीं मिलता। (महाभारत)
  • जिसकी बुद्धि ठीक-ठीक काम न करे, उसे पागल कहते हैं।
  • शारीरिक रोगों का इलाज डॉक्टर और वैद्य करते हैं, मानसिक रोगों का इलाज (उपचार) संत और शास्त्र करते हैं।

सच्ची बातें                                                                                                      23

  • अपनी मुख्य समस्या का समाधान किया या नहीं? बारम्बार जन्म-मृत्यु, जरा-व्याधि – क्या ये भयंकर समस्यायें नहीं है ?
  • किसी कार्य को करने के लिए बुद्धि के निश्चय का नाम संकल्प है।
  • सन्त, महात्मा, ज्ञानी, भक्त, महापुरुष, ब्रह्मवेत्ता, ब्राह्मण आदि, ये सभी ज्ञानी व्यक्ति के सम्बोधन मात्र हैं। (मायाकृत हैं, सत्य नहीं हैं।)

जन्मना जायते शूद्रः कर्मणा जायते द्विजः। .

वेदाध्ययी भवेद्विप्रो ब्रह्म जानति ब्राह्मणः ॥

  • कोई भी अधिष्ठान व्यवहार में बोलने की वस्तु नहीं है। परमार्थ दृष्टि रहते हुए भी व्यवहार तो अध्यस्त (काल्पनिक) नाम-रूप पर ही चलेगा।
  • जो मैं, मेरा, हमारा, तुम्हारा में अनुरक्त हैं, अथवा दिखाई देने वाले पदार्थों (दृश्य) में अनुरक्त हैं। उन्हें ही “माया” में लिप्त कहा गया है। (रामचरितमानस)
  • जिन कार्यों से. देह तथा वर्ण, आश्रम, जाति, कुल आदि का अभिमान (अहंकार) मिट जाय, वही सत्कर्म हैं। वे कार्य हैं – स्वाध्याय, सत्संग, मनन, विचार तथा निदिध्यासन
  • कोई औषधि का सेवन तो करे, परन्तु परहेज न करे तो रोग मुक्त नहीं हो सकेगा।
  • इसीप्रकार कोई पूजा-पाठ, देव-दर्शन, कीर्तन, जप-व्रतं आदि तो करे, परन्तु अधर्म अर्थात् पाप के आचरण को न छोड़े तो वास्तविक सुख-शान्ति नहीं मिल सकती।
  • काम, क्रोध और लोभ – ये तीनों जिस व्यक्ति में हैं, उसे पुनः मनुष्य शरीर की प्राप्ति नहीं होती। (मानस)
  • मनुष्य देह से तात्पर्य यहाँ दैवी-सम्पदा के गुणों, सतोगुण की बाहुल्यता, सज्जनता तथा सम्पन्नता आदि से है। .

सच्ची बातें                                                                                                    24

  • ‘जीव’ मिथ्या अहंकार छोड़ता नहीं, इसीलिए मुक्त होता नहीं  है।
  • जिस क्षण जीव मिथ्या अहंकार को त्याग कर सच्चा धारण कर ले, उसी क्षण पुनर्जन्म के बन्धन से मुक्त हो सकता है।
  • स्थूल अहंकार को समझ लेना तो कुछ आसान है, परन्त सभी अहंकार को समझ पाना बहुत कठिन है। इसे स्वयं नहीं जाना जा सकता है।
  • जीव द्वारा शरीर आदि के कर्मों और धर्मों को अपने मान लेना जड़-चेतन की ग्रन्थि है।
  • असंख्य जन्मों से अगणित शरीरों में रहना और कुछ समय बाद वह शरीर, घर, परिवार, सामान तथा मान-सम्मान आदि सब छट जाना। क्या जीवन की बहुत बड़ी समस्या नहीं है?
  • काल्पनिक रूप-नाम को सत्य समझ लेना मोह है।
  • जो वस्तु जिसके आश्रित होती है, वह उससे भिन्न किंचित मात्र भी अपना अस्तित्व नहीं रखती है।
  • इसी नियम को जड़-जड़ में लगाने के बाद जीव और आत्मा में भी लगा कर देखना चाहिए।
  • अधिक सम्पत्ति विपत्ति का कारण बनती है तथा बुद्धि को । बिगाड़ देती है।
  • निकटतम सम्बन्धी की मृत्यु पर दुःखी इसलिए होना चाहिये, कि पता नहीं, इस जीव को अब कितने पशु-पक्षी आदि के शरीर म भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी आदि के कष्ट सहने पड़ेंगे।
  • ब्रह्मज्ञानी का अर्थ है – जो अपने मैं को व्यापक, अखण्ड, अनादि, सर्वात्मा, ब्रह्म समझता है। देह आदि में जिसकी मैं बुद्धि नहीं रहती है।
  • शास्त्रसंत हिन्द, मसलमान. सिक्ख, इसाई, अम्रीकन तथा आस्ट्रेलियन आदि में भेद-भाव रखकर उपदेश नहीं करता है।

सच्ची बातें                                                                                                     25

अमानतावश आवागमन के चक्र में फंसे हुए ‘जीव’ को दृष्टि में रखकर उपदेश करते हैं।

  • विचार करो पंचभूतों के संघात रूप इस देह में हड्डी, माँस, रक्त, चाम आदि माता-पिता, पति-पत्नी, पुत्र-पुत्री, भाई-बहन तथा हिन्दू, मुसलमान आदि हैं, कि जीव अथवा आत्मा
  • फिर किसके लिए झूठ-छल-कपट, धोखाधड़ी, बेईमानी और अत्याचार आदि की कमाई का संग्रह कर रहे हो। कौन भोगेगा इन कर्मों का फल? (महर्षि वाल्मीकि)
  • हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, इसाई, जैन आदि कोई धर्म नहीं हैं। ये तो अपनी-अपनी पद्धतियाँ, संस्कृति और परम्परायें हैं।
  • धर्म तो मानव मात्र का एक ही है, इसके गूढ़ रहस्य को किसी शास्त्रज्ञ से जानना चाहिए।
  • मनुष्य माने स्त्री-पुरुष (मेल-फीमेल) दोनों होते हैं। गीता के पुरुष शब्द का अर्थ जीव है। जीव न स्त्री होता है न पुरुष।
  • मनुष्य देह में आये हुए जीव को जो करना चाहिए, वह नहीं करता, जो नहीं करना चाहिए, वही करता है। यही विडम्बना है।
  • भौतिक दृष्टि से गंगा एक नदी का नाम अवश्य है। उसमें बहने वाले जल को गंगाजल स्थूल दृष्टि अथवा आरोपित दृष्टि से कहते हैं।
  • अध्यात्म की दृष्टि से अर्थात् वेदान्त के सिद्धान्तों को समझने से ज्ञात होता है, गंगा उस परमज्ञान का नाम है, जिसका वर्णन गीता में तत्त्वज्ञान के नाम से अनेकों बार हुआ है। जिस ज्ञान को धारण (सेवन) करने से पुर्नजन्म नहीं होता। गीता में लिखा है –

॥गीता गंगोदकं पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते॥

  • जीव-ब्रह्म की एकता का ज्ञान ही वास्तविक ज्ञान है, शेष सभी ज्ञान तो अज्ञान ही हैं। (जीवात्मैक्य)

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