Sacchi Baatein सच्ची बातें part 4
Sacchi Baatein सच्ची बातें apne ko jano kaise jane is book m btaya gaya hai
सच्ची बातें 16
- चोरी, हिंसा, बेईमानी, अन्याय, अत्याचार, झूठ, भ्रष्टाचार तथा बलात्कार, आदि “विकर्म” हैं। यही महापाप के कार्य हैं।
- अपने सत् स्वरूप का अभिमान होना ही, परमात्मा की प्राप्ति है।
- जो बुद्धि विनाशी वस्तुओं, सम्बन्धों, विषय भोगों में रची-पची है, वही “दुर्बुद्धि” है।
- जो बुद्धि अविनाशी आत्मतत्व के स्मरण, मनन, विचार, सत्संग शास्त्रों के अनुशीलन में लगी हुई है, वही “सबुद्धि” है।
- अन्तःकरण की वृत्ति ही अनेकों प्रकार के “आकार” धारण करती रहती है। जैसे- सुखाकार, दुःखाकार तथा विषयाकार आदि।
- भगवदाकार, कामाकार, लोभाकार, देहाकार, ब्रह्माकार तथा क्रोधाकार यह सब वृत्तियाँ ही हैं।
- “लक्षण प्रमाण” से वस्तु की सिद्धि होती है, न कि प्रतिज्ञा करने से, अर्थात् कहने मात्र से।
- ईश्वर जिस ‘जीव’ का “वरण” करता है, उसी को अपने परमात्म स्वरूप का “बोध’ होता है। अर्थात् उसे ही परमात्मा से अपनी एकता का बोध होता है।
- बुद्धिजीवी लोग भगवान् श्रीकृष्ण व श्रीराम को जन्मने-मरने वाला व्यक्ति विशेष न मानकर गीता व मानस के अनुसार “तत्व” विशेष जान लें, तो मन्दिर-मस्जिद का झगड़ा समाप्त हो सकता है।
- जो मन्दिरों में दर्शन, तथा घरों में पूजा आदि तो करते है, परन्तु असली भगवान् को जानने का प्रयत्न नहीं करते, वेसच्चे “आस्तिक” नहीं हैं।
- तत्वज्ञान अथवा भक्ति की प्राप्ति भी “प्रारब्ध” से ही होती है।
- इसी दिशा में निरन्तर “पुरुषार्थ” करने वाले का कभी न कभी “प्रारब्ध” बन ही जाता है।
सच्ची बातें 17
- बिना प्रयत्न किये “प्रारब्ध” अपने आप कभी नहीं बनता।
- पूरी शक्ति के साथ मन लगाकर निरन्तर भगवत् प्राप्ति के लिए प्रयत्न करने को परम पुरुषार्थ कहते हैं।
- निष्काम कर्म, मानसिक जप तथा परमार्थ की चर्चा का श्रवण अन्तःकरण शुद्धि के मुख्य “साधन” है।
- दूसरों के कष्टों और दुःखों को दूर करना तथा भूखे-प्यासे लोगों (जीवों) की भूख-प्यास आदि मिटानें से “पुण्य” फल अर्जित होते हैं।
- मैं अज्ञानी हूँ, यह समझना “बुद्धिमानी” है। ज्ञान प्राप्ति का मार्ग खुला रहेगा।
- ईश्वर वह है, जो हम सबके हृदय के भाव, विचार, उद्देश्य आदि जानता है, तथा शुभाशुभ कर्मों का फल भी देता है।
- आत्मज्ञानी माया को छाया की भाँति देखता है। अज्ञानी व्यक्ति ‘माया‘ को सत्य समझ कर फँसता है। (अहंता-ममता, आसक्ति और वासना में बँधकर भव बन्धन में पड़ता है)।
- जितनी भी स्थूल सृष्टि है, वह सब भगवान् के “विराट रूप” के अन्तर्गत ही है। यही विराट भगवान् का सगुण-साकार रूप है। जिनकी ज्ञान दृष्टि खुल चुकी है, वही इस बात को समझ सकते हैं।
- किसी की आस्था यदि असत्, अनित्य, अनात्म, विनाशी, दृश्य के प्रति है, तो ऐसी ‘आस्था‘ का फल अनित्य तथा विनाशी ही मिलता है।
- अपने वास्तविक सत्स्वरूप का स्मरण करना ही “परमात्मा का सच्चा स्मरण” है।
- यदि किसी को अपने “सदगुणों” का अहंकार हो जाय, तो वे सद्गुण भी “दुर्गुणों” के समान ही है।
- प्रत्येक “जीव” प्रारब्ध रूपी डोरी से बँधा है। जिसका जैसा “प्रारब्ध” होता है, ‘मन‘ का खिंचाव उसी तरफ उसे घसीट ले जाता है।
सच्ची बातें 18
- ‘तत्वज्ञान” ही वास्तव में “असली ज्ञान” है, शेष सभी ज्ञान को “अज्ञान” ही हैं।
- ‘ज्ञान‘ से अधिक पवित्र करने वाला संसार में निःसन्देह और कल भी नहीं है। (गीता 4-38)
- परमार्थ वस्तु का अच्छी तरह से ‘ज्ञान‘ हुए बिना, न भक्ति हो सकती है, न कोई भगवान् का “भक्त” हो सकता है।
- यदि सद्गुरु के द्वारा जगत् को बाधितानुवृत्ति से देखने की कला आ जाय, तो “सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा ज्ञान की दृष्टि से” कभी अदृश्य नहीं हो सकता। सदैव साक्षात अपरोक्ष ही रहेगा।
- यह नियम है कि जो व्यक्ति जैसा होता है, दूसरों को वह अपने जैसा ही समझता है।
- हम (लोग) अशुद्ध बुद्धि के कारण ही, सजीव से निर्जीव को, चेतन से अचेतन को, चेतना से जड़ता को, ब्रह्म से माया को, सत् से असत् को श्रेष्ठ और पूज्य समझते हैं।
- ‘जो सांसारिक लोगों को खुश करने में अथवा आकर्षित करने में लगे हैं, वह ईश्वर को कभी प्रसन्न नहीं कर सकते।
- वैराग्य के अभाव में ज्ञान-भक्ति ठहर नहीं सकते।
- धन-सम्पत्ति, पद-प्रतिष्ठा, मान-सम्मान तथा समृद्धि आदि चाहने वाले का परमात्मा से स्वतः वैराग्य है।
- परमात्मा में जिसका अनुराग है उसका धन-सम्पत्ति, पद-प्रतिष्ठा तथा परिवार आदि से स्वत: वैराग्य है।
- संत संसारी लोगों से विलक्षण एवं अद्भुत होते हैं। वेष-भूषा तथा आडम्बरों से नहीं, केवल ज्ञान (समझ) से।
- जो लोग संत-महापुरुष, संन्यासी, व्यवसायी, ज्ञानी, विद्वान, गुरु, सद्गुरु आदि में अन्तर नहीं समझते, वे तो “ठगे‘ जायेंगे ही।
सच्ची बातें 19
- यदि सदैव शरीर की ‘मृत्यु‘ तथा बुढ़पे का स्मरण रहे, तो युवा अवस्था के “मद” तथा ‘पापों‘ से व्यक्ति बच सकता है।
- दुःख, कष्ट, क्षुधा, प्यास, अभाव आदि की निवृत्ति कराना तथा सर्वभूतहिते रताः में लगे रहना, यह सभी महान पुण्य के कार्य हैं।
- देह, जीवात्मा और आत्मा के विवेक के बिना कोई भी योग सिद्ध नहीं हो सकता। क्योंकि जीवात्मा का ही परमात्मा से योग होता है, देह का नहीं।
- कोई भी साधना करो, कोई भी साधन अपनाओ, कोई इष्ट बनाओ, किसी को गुरु बनाओ परन्तु लक्ष्य तत्वज्ञान‘ ही होना चाहिये।
- जिस तत्व का स्मरण तथा नाम जप करने से, पापों, दुःखों तथा अविद्या का हरण हो, उस सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान तत्व को हरि: कहते हैं।
- श्मशान घाट पर जलती चिताओं को देख कर, यदि यह समझ आ जाय, कि एक दिन हमें अर्थात् शरीर को भी इसी तरह जला दिया जायेगा, तो शायद पापाचरण कम हो जाय।
- आप शरीर हैं अथवा इस शरीर रूपी घर में रहने वाले कोई तत्व हैं। यह विचार नित्यप्रति न उठना रजोगुण तथा तमोगुण की प्रधानता का लक्षण है।
- व्यवहार दृष्टि में जो बात बिल्कुल सत्य समझी व मानी जाती है, परमार्थ दृष्टि से वह भी बिल्कुल असत्य (झूठ) ही होती है।
- प्रेम में स्वार्थ का स्थान नहीं है, जहाँ स्वार्थ है, वहाँ प्रेम नहीं है। प्रेम में देना ही देना (त्याग ही त्याग) होता है, कामना (पाना) नहीं।
- ईश्वर में मन, बुद्धि, चित्त का पूर्ण समर्पण ही ईश्वर में प्रेम कहा जाता है। यही सच्ची ईश्वर भक्ति है।
- माया यदि ठीक तरह से समझ में आ जाय तो, ब्रह्म को समझने में कठिनाई नहीं रहती।
सच्ची बातें 20
- उपाधि, आरोप, अध्यारोप, कल्पना, अपवाद और मनोराज्य को समझे बिना, माया समझ में नहीं आ सकती है।
- अन्न (खाद्य पदार्थ ), जल, धन, बल (शक्ति), विद्यत तथा समय, सामर्थ्य को अहंकार की संतुष्टि में बर्बाद करना महान् निन्दनीय (निकृष्ट) कार्य हैं।
- किसी प्रदेश में सौ से अधिक. असली सन्त-महात्मा एक समय में नहीं होते हैं। (गीता तथा मानस से)
- दैवी-सम्पदा के गुणों से युक्त, सतोगुण की बाहुल्यता तथा विवेकी मनुष्यों की संख्या भी दो-तीन लाख से अधिक नहीं होती है।
- सर्वभूतहिते रताः की भावना से युक्त तथा विवेकवान् को ही मनुष्य माना गया है. (जो दैवी-सम्पदा के गुणों से सम्पन्न है) । गीता अ० 16
- मनुष्य जाति के अतिरिक्त जितने भी स्वतन्त्र प्राणी हैं, वे सदैव भोजन की तलाश में ही रहते है। फिर भी पेट कभी नहीं भर पाते, वे सर्दी, गर्मी तथा वर्षा आदि से बचने का साधन भी नहीं जुटा पाते हैं।
- मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है, जो शास्त्रों के अध्ययन एवं सद्गुरु के माध्यम से विवेक, वैराग्य आदि साधनों का आश्रय लेकर सदैव के लिए लख चौरासी के बन्धन से छूट सकता है।
- मृतक के द्वार पर इसलिए जाने का विधान है, कि वहाँ हम शिक्षा ग्रहण करें कि धन-सम्पत्ति अथवा परिवार आदि से कैसे वंचित होकर, जीव को विवशता से पशु-पक्षी अथवा अन्य शरीरों में जाना पड़ता है।
- दृष्टा कभी दृश्य नहीं होता, दृश्य, दृष्टा से भिन्न नहीं होता। दृष्टा और दृश्य में विलक्षणता भी है, फिर भी दृष्टा अद्वितीय ब्रह्म है। यह बात वेदान्त बतलाता है।
- असंग अथवा सर्वात्मा होना नहीं है, असंग तथा सर्वात्मा आप है। केवल यह बात सद्गुरु से जाननी और अनुभव करनी है।
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