Sacchi Baatein-सच्ची बातें part-6

Sacchi Baatein-सच्ची बातें part-6

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सच्ची बातें                                                                                                    26

(Sacchi Baatein-सच्ची बातें ) परमात्मा-ईश्वर-भगवान्-अखण्ड, अनादि, अनन्त, अजन, असीमित, अचल, अविनाशी, अज़ड़, आकाशवत् परिपर्णन है।

इन शब्दों से असली भगवान् का शास्त्रों में ज्ञान कराया गया है।

  • प्रत्येक जन्म में बच्चे पैदा किये. परवरिस किये. घरबनाये, धन-सम्पत्ति एकत्र की और छोड़कर किसी अन्य शरीर (योनि में चले गये। क्या यही बुद्धिमानी है?
  • भौतिक सम्पत्ति के बल पर परमानन्द की प्राप्ति नहीं की जा सकती है। परमानन्द की प्राप्ति तो आध्यात्मिक सम्पत्ति के बल पर तत्व विचार व सत्संग के माध्यम से ही की जा सकती है।
  • चिजड़ ग्रन्थि के खुले बिना, परमानन्द (मोक्ष) की प्राप्ति किसी अन्य उपाय से नहीं हो सकती।
  • आध्यात्मिक सम्पत्तियाँ हैं- विवेक, वैराग्य, शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा, समाधान। छ भ्रान्तः प्रतीतः संसारः अर्थात् संसार है ही नहीं, भ्रम से प्रतीत हो रहा है।

सत्य जहाँ दीखे नहीं, मिथ्या में अनुरक्ति।

बिनु विचार कीन्हें, वहाँ होवे नाहीं मुक्ति ।

जब लग माया नहीं निवारे, है कछु और, और निहारे॥

  • इन सभी के लक्ष्यार्थ को किसी तत्वज्ञानी के पास जाकर अवश्य समझना चाहिए।
  • चौरासी लाख योनियों की आकृतियों में अन्तर दिखाई देता है, परन्तु इनके मटीरियल (पंचभूतों) में कोई अन्तर (भेद-भाव) नहीं है।
  • जीव क्या चाहता है, पुरुषार्थ करने का “जीव” का क्या ‘उद्देश्य‘ है? यह बात ईश्वर से छिपी नहीं रहती। जब जीव केवल ईश्वर को

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चाहता है और कुछ नहीं चाहता, तभी ईश्वर जीव का वरण करके ‘तत्वज्ञान’ के साधन उपलब्ध करा देता है।

  • सभी मनुष्यों के हृदय रूपी गुहा में एक ऐसी चिप लगी है, जिसमें जीवन भर के सभी कर्मों का विवरण अंकित होता रहता है। समय आने पर दस जन्म अथवा अगले जन्मों में उसका फल नाना प्रकार की योनियों में अवश्य भोगना पड़ता है।
  • जिस मसले में कोई उपाय काम न करे, उसे ईश्वर की इच्छा अथवा विधाता का विधान समझ कर छोड़ देना चाहिए।

होइहै सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥

होन हार भावी प्रबल, बिलखि कह्यो मुनि नाथ।

हानि लाभ जीवन मरण यश अपयश विधि हाथ॥

  • रामचरितमानस में व्यवहार जगत् की सभी समस्याओं का समाधान तो है ही। वेदान्त (परमार्थ) का भी पूर्ण रूप से निरूपण किया गया है। जिसे ज्ञानवान् संत ही समझा सकते हैं।
  • अपने बचन का पालन न करना बात व्यवहार में झूठ बोलना, मन-वाणी-कर्म से हिंसा करना, किसी को कष्ट देना, साधकों तथा संतों की शान्ति में बिघ्न-बाधा पहुँचाना, ये सभी पाप कर्म ही हैं।
  • धन में गुण एक है, दोष अनेक हैं। यह बात विचार करने से ही ज्ञात होती है।
  • उपनिषदों, गीता तथा रामायण आदि के उपदेश, इनका ज्ञान मनुष्यों (जीवों) के लिए है। पढ़े-लिखे होकर जो इनका अध्ययन, श्रवण, मनन तथा विचार आदि नहीं करते। वे अपने को अद्वितीय ब्रह्म कैसे जान सकते हैं?
  • अखबार, दूरदर्शन, मोबाइल तथा प्राचीन इतिहासों में जिनका

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चित्त फँस गया है वे ब्रह्म सत्य है, जगत् मिथ्या है। यह कोई बात नहीं समझ सकते हैं।

  • कोई  ऐसा शुभ कार्य नहीं है, जिससे कुछ न कुछ अशुभ न होता हो। कोई ऐसा पुण्य कार्य नहीं है, जिससे कुछ न कुछ पाप न होता हो।
  • माया ने बुद्धि पर ऐसा आवरण (पदा) डाल दिया है. किलो वस्त नहीं है. वही दिखाई देती है। जो है ही, वही नहीं दिखाई देती।
  • प्रत्येक सुख-दुःख से, प्रत्येक दुःख-सुख से जुड़ा होता है। जैसे शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष एक-दूसरे से कनक्टेड (जुड़े) रहते हैं।
  • देहाभिमानी व्यक्ति से भागवत कथा अथवा रामकथा सनी अधिक अच्छा है कि भागवत या मानस खरीद कर स्वयं प्रतिदिन विचारपूर्वक स्वाध्याय, मनन तथा विचार आदि किया जाय।
  • असली वैराग्यवान अथवा असली साधक वही है, जो समझता है, कि एक सम्बन्ध बढ़ा, तो एक आफत बढ़ी, एक सम्बन्ध घटा, तो एक आफत घटी।
  • शास्त्रीय बहुत सी बातें कुछ लोग जानते तो हैं, परन्तु मानते नहीं हैं। जानना अलग बात है, मानना अलग बात है।
  •  ईश्वर का विधान सभी के लिए कल्याणकारी है। उसमें अमंगल है ही नहीं। केवल समझ का फेर है।
  • एक शरीर दूसरे शरीर का पिता तो हो सकता है, परन्तु जीवात्मा का असली पिता तो परमात्मा ही है।
  • जब हमारी बुद्धि से ईश्वर के अन्तर्यामी होने की बात निकल जाती है, तभी हम भगवान् श्रीकृष्ण, श्रीराम, विष्णु तथा शिव आदि का व्यक्ति समझने लगते हैं।
  • माया अत्यन्त शक्तिशाली है. साधक एवं सिद्ध का सावधान रहने की आवश्यकता है। (सावधानी हटी, दुर्घटना घटी)

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  • मन पर विश्वास कभी नहीं करना चाहिए। इसको माया की ओर पलटने में देर नहीं लगती।
  • जब केवल शास्त्र अध्ययन, नाम-जप, सत्संग तथा आध्यात्मिक विचार करने में मन को रस मिले, तब समझना पुण्य उदय हुए हैं।
  • जब सांसारिक बातों, दूरदर्शन देखनें, अखबार पढ़ने, रात-दिन धन-सम्पत्ति बढ़ाने, खाने-पीने, मनोरंजन में ही मन को रस मिले, तब समझना चाहिए पापों का उदय हुआ है।
  • असंगता एवं साक्षी भाव आ जाने पर अर्थात् देहाभिमान गलित हो जाने पर बन्ध-मोक्ष, जन्म-मृत्यु, सुख-दुःख, मान-अपमान, स्वर्गनर्क तथा प्रारब्ध आदि का कोई अर्थ नहीं रह जाता।
  • ईश्वर, गुरु, शास्त्र तथा अपनी स्वयं की कृपा जब एक साथ होती है, तभी जीव को अपने सत् स्वरूप का सुदृढ़ ज्ञान होता है।
  • ‘सद्ग्रन्थों का नित्य नियम से अध्ययन, मनन, विचार, सत्संग तथा नाम-जप करना गृहस्थ आश्रम का विरोधी नहीं है।
  • आरती-पूजन, काल्पनिक ध्यान, तीर्थ, व्रत तथा योगा आदि की क्रियाओं से अधिक लाभकारी है सद्ग्रन्थों का विचारात्मक अध्ययन, जड़-चेतन का विवेक, सत्संग, श्रमदान, परमात्मा के ॐ नाम का मानसिक जप तथा तत्त्व विचार।
  • मनुष्य आप ही अपना मित्र है, आप ही अपना शत्रु है। मन, बुद्धि, इन्द्रियों को संयमित करके जिसने अपने समय-शक्ति, सामर्थ्य का 25% भाग तत्त्वज्ञान प्राप्त करने में लगा दिया, वही अपना मित्र है, नहीं तो अपना ही शत्रु है।
  • जीव का देह भाव में रहना परमात्मा से वियोग है, मिथ्या देहाभिमान त्यागकर परमात्मा केसाथ “एकीभाव”में स्थित होजाना संयोग है।

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  • देहाभिमान का अर्थ है – जीव का देह के साथ ताबा देह में हम अथवा में भाव, अपने को 3 हाथ का देह अनि यह तादात्म्य अग्नि-लोहवत् है।
  • भक्ति और भक्त के अनेक प्रकार हैं – भक्ति का सच्चा स्वस वही है, जिसमें कई जन्मों से साधना करते-करते जीव का देह भाव निवृत्त होकर ब्रह्म भाव प्राप्त हो जाता है, द्वैत के प्रति सत्यत्व भाव जाना ही भक्ति अथवा ज्ञान की पूर्णता है।
  • भक्ति का पुष्प सात्विक, निर्मल तथा अतिसंवेदनशील, भावना प्रधान हृदय में ही खिलता है। आगे चलकर इसी पुष्प से विवेक. जान वैराग्य रूपी फल परिपुष्ट होते हैं।
  • सभी को अपनी बुद्धि तथा दूसरे का धन अधिक मालुम पड़ता है।
  • भक्ति – मन, बुद्धि, चित्त की एक ऐसी अवस्था (स्थिति) है। जिसमें ये तीनों सर्वात्मा श्री हरि: के स्मरण, ध्यान, जप तथा सर्वत्र दर्शन आदि में ही तल्लीन रहते हैं।
  • निर्जीव मूर्तियों को भोग लगाना अच्छा है, परन्तु निर्जीव से सजीव . मूर्तियों को भोजन कराना अधिक अच्छा है।
  • ब्रह्मज्ञानी संत अथवा किसी हरिभक्त की उपेक्षा अथवा तिरस्कार . करना, ईश्वर की ही उपेक्षा तथा तिरस्कार है। सर्वाधिक यही पाप है। (योग वासिष्ठ)
  • सेवा धर्म यद्यपि बहुत कठिन है। फिर भी यदि सभी के प्रति भगवत् भाव का उदय हो जाय, तो यह कार्य सरल हो जाता है । सेवा म स्वार्थ (लोभ, लालच) का कोई स्थान नहीं है। माता-पिता, दादा-दादा, सास-ससुर, रोगी तथा सद्गुरु सेवा से भगवान् प्रसन्न होते हैं।

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