वेदान्त का उद्घोष

वेदान्त का उद्घोष

वेदान्त का उद्घोष

आत्मतत्व का ज्ञान हो जाने का अर्थ यह नहीं है कि प्रपंच अथवा जगत की प्रतीति नहीं होगी अथवा भूख, प्यास, कष्ट, पीड़ा, सुख-दुःख, जन्म-मृत्यु, विषयों तथा अपने-पराये आदि की प्रतीति नहीं होगी| यह सब बिल्कुल वैसा ही होगा, जैसा पहले होता था । केवल इनके प्रति सत्यत्व बुद्धि  नहीं रहेगी।

          जैसे- रस्सी का ज्ञान हो जाने पर “सर्प”, शीप का ज्ञान हो जाने पर “चाँदी”, स्वर्ण का ज्ञान हो जाने पर “आभूषण”, मृग मरीचिका का ज्ञान हो जाने पर ‘जल’ तथा आकाश का ज्ञान हो जाने पर ‘नीलिमा’ मिट्टी का ज्ञान हो जाने पर सम्पूर्ण ‘सृष्टि’ तथा जल का ज्ञान हो जाने पर बरफ की प्रतीति होना बंद नहीं हो जाती है।

वेदान्त का उद्घोष

इसीप्रकार अपने सच्चिदानंदघन स्वरूप का ज्ञान हो जाने पर अर्थात “मैं” आत्मतत्त्व, अविनाशी, अखंड, आकाशवत् परिपूर्ण, सामान्य सत्ता मात्र हूं । यह ज्ञान दृढ़ हो जाने पर अर्थात् निश्चय हो जाने पर देहादि के सहित प्रपंच – जगत् के प्रति जो पहले सत्यत्व एवं महत्व बुद्धि  थी, वह नहीं रहती |किसी बात एवं वस्तु आदि के प्रति हठ नहीं रहता है । अन्त:करण की प्रतीति होती है, परन्तु अन्तःकरण के भाव विचार, संस्कारों तथा निर्णयो आदि के प्रति सत्यत्व एवं महत्व बुद्धि का नाश हो जाता है। क्योंकि यह सभी बाधितानुवृत्ति से दीखने लगते हैं ।

          दूसरी बात यह है कि व्यवहार के समय “इदं” की जगह “अहं” भाव हो जाता है। तात्पर्य यह है कि जिससे बात-चीत, व्यवहार तथा लेन-देन आदि हो रहा है, वह ‘मैं’ ही हूं, दूसरा नहीं है, यह दृढ़ निश्चय हो जाता है। जिसके फलस्वरूप किसी के साथ झूठ, छल, कपट , अन्याय, अनीति, अत्याचार तथा विश्वासघात आदि का  व्यवहार बर्ताव नहीं हो पाता है। काम, क्रोध, लोभ तथा माया-मोह का विनाश हो जाता है । यही जीवन्मुक्त, तत्त्वज्ञानी की स्थिति है।

दोहा- सबको देखे आपमें आप है सबके मांहि ।

पावे जीवन्मुक्ति को या में संशय नंहि ।।

हमारी “अध्यात्मविद्या” कहती है कि जगत् अथवा दृश्य-प्रपंच तुम्हें दिखाई देता है अर्थात् प्रतीत होता है अथवा भासता है । इससे “ब्रह्मविद्या” का कोई विरोध नही है। विरोध केवल इतना है कि यह सत्य नहीं है।

आत्म ज्ञान हो जाने पर नानात्व का दीखना बन्द नहीं होगा, नानात्व के प्रति सत्यत्व भाव नहीं रहेगा । यही जगत् मिथ्या कहने का अर्थ है। ध्यान रहे कि अपने स्वरूप का ज्ञान होने पर न कुछ उत्पन्न होता है, न कुछ नष्ट होता है, न कुछ मिलता है, न कुछ जाता है, केवल अज्ञान मिटता है अर्थात् भान्ति मिटती है। ईश्वर , जीव, जगत तथा अपने ‘मैं’ के प्रति जो भ्रान्ति थी, वही मिटती है। ईश्वर, जीव, जगत तथा देहादि नहीं मिटते हैं। घर-परिवार, नाते-रिस्तेदार, धन-सम्पत्ति तथा सूर्य-चन्द्र आदि नहीं मिटते है। इनके प्रति जो सत्य होने की मान्यता थी, वह जरुर मिट जाती है। द्वैत का भासना, द्वैत का प्रतीत होना बंद नहीं हो जाता, केवल द्वैत  के प्रति जो सत्यत्व की मान्यता थी, देश, काल,वस्तु के प्रति जो सत्यत्व की मान्यता बुद्धि में जड़ें जमाये बैठी थी, वह अवश्य नष्ट हो जाती है। यही ‘परमार्थज्ञान’ है, यही ‘अध्यात्मज्ञान’ है, यही ‘ब्रह्मज्ञान’ है, यही तत्व ‘दृष्टि’ है, यही गीता का ‘तत्त्वज्ञान’ है, यही ‘आत्मज्ञान’ है।

इसका परिणाम यह होता है कि समस्त नाम रूपात्मक सृष्टि-संसार मन की स्फुरना से कल्पित सिद्ध हो जाता है । इसलिए अविचारकृत अहंता, ममता, वासना तथा आसक्ति का समूल नाश हो जाता है । दृश्यादि के प्रति जो महत्व बुद्धि थी, वह आत्मतत्त्व अर्थात् अपने सत् स्वरुप के ज्ञान से समाप्त हो जाती है । इसलिए देश, काल, वस्तु के प्रति आकर्षण नहीं रहता है, क्योकि ये असत् की श्रेणी में हैं।  यह बात ज्ञानी व्यक्ति अच्छी तरह समझता है ।  अज्ञानी इन्हें सत्य समझता है । इसलिए वह अहंता, ममता तथा वासना की बेड़ियों में पड़कर पुनर्जन्म के बंधनो में पड़ा रहता है । भेद भ्रान्ति का कारण भी उपाधि ही है, इस बात को ज्ञानी अच्छी तरह जानता है, अज्ञानी सत्य समझता है । यही ज्ञानी तथा अज्ञानी “जीव” का अन्तर है जिसे वेदान्त के श्रवण, मनन तथा तत्त्वविचार से समझा जा सकता है ।

ओम् पूर्णमदं: पूर्णमिदं पूर्णांत्यूर्ण मुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवाव शिष्यते ॥

॥ ओम् शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

I am Anmol gupta, i warmly welcome you to APNE KO JANO, and hope you liked this article, My mission is to inspire millions of people, i can show you the right path to go ahead.

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