विवेक
भागवत पुराण के अनुसार विवेक माने अपने सत् स्वरूप का ज्ञान। उपर्युक्त विवेक की विवेचना इस प्रकार है—
1- देह से मैं प्रथक हूं, इसेे विवेक कहते हैं।
2- शरीर मुझे मिला है, मैं शरीर नहीं हूं, इसे विवेक कहते हैं।
3- शरीर अनित्य, विकारी तथा विनाशी है, मैं नित्य, अविकारी तथा अविनाशी हूं, इसे विवेक कहते हैं।
4- देह आदि जड़ पदार्थ हैं, मैं चेतन तत्व हूं, इसे विवेक कहते हैं।
5- शरीर, मन, बुद्धि आदि दृश्य पदार्थ हैं, मैं इनका दृष्टा हूं, इसे भी विवेक कहते हैं।
6- “मैं” से “यह” अर्थात् मैं और यह को प्रथक-प्रथक समझना विवेक है। जो हमारा है, वह ‘हम’ नहीं हैं, इसे विवेक कहते हैं।
7-सृष्टि में जितने भी दृश्य पदार्थ हैं, वे सब अचेतन, अनित्य तथा विकारी हैं। मैं इनका ज्ञाता इन सबसे श्रेष्ठ चेतन तत्व हूं, इसे विवेक कहते हैं।
8- स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर, कारण शरीर, अंतःकरण तथा प्राण आदि के कार्यों और धर्मों को प्रथक प्रथक समझना विवेक है।
9- अपने को अखंड, अविनाशी, अचल आत्म तत्व के रूप में अनुभव करना तथा दृश्य शरीर आदि को अनात्म तत्व, मिथ्या, असत् मायाकृत समझना “महान विवेक” है।
ऐसा विवेक जिसे है, वही इस समय का विवेकानंद है, इसप्रकार का विवेक जिसे नहीं है, शास्त्र उसे पशु तुल्य कहते हैं। मुख्यत: मिट्टी आदि से बनी देह में “हम”अथवा “मैं” बुद्धि होना अविवेक की पराकाष्ठा है। ऐसे लोग भक्ति, ज्ञान तथा मुक्ति प्राप्त करने के अधिकारी नहीं हैं। केवल “जीव” भाव में रहने वाला व्यक्ति ही भक्ति, ज्ञान तथा मुक्ति का अधिकारी है।