महापुरुषों की वाणी

महापुरुषों की वाणी

महापुरुष कहते हैं जब तक किसी की बुद्धि अन्धविश्वास तथा अन्धपरम्पराओं में जकड़ी रहेगी, विवेक तथा विचार शून्य बनी रहेगी, तब तक कोई भी परमसत्य वस्तु – परमार्थ को जान नहीं सकेगा, चाहे जितना प्रयाश करता रहे, सफलता नहीं मिलेगी। जगत् अर्थात् देश, काल, वस्तु को ही सत्य समझता रहेगा। जिसके कारण दुःखों से पूर्णतया छुटकारा नहीं मिलेगा, जन्म मृत्यु का चक्र चलता ही रहेगा।

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मनुष्य अर्थात् “जीव” प्रतिदिन बहुत कुछ सोचता है, बहुत सी योजनायें बनाता है, परन्तु शरीर की मृत्यु, पुनर्जन्म तथा अपने उद्धार के विषय में कभी नहीं सोचता, जब कि इन बातों पर सोचना और विचार करना अति आवश्यक है।

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धर्म अथवा अधर्म से, पाप से-पुण्य से, न्याय से- अन्याय से ईमानदारी से बेईमानी से, हिंसा से – अहिंसा से, सत्य अथवा झूठ से बढ़ाई गई धन – सम्पत्ति, पद-प्रतिष्ठा तथा सगे सम्बन्धियों आदि को एक क्षण में छोड़कर “जीव ” को किसी अन्य शरीर में, विवश होकर जाना ही पड़ता है। ऐसा विचार यदि नित्य-प्रति कई बार होने लगे, तो शरीर व संसार तथा घर-परिवार आदि से वैराग्य होकर परमात्मा से अनुराग हो सकता है। जिससे मानव जीवन सफल हो सकता है।

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ईश्वर (भगवान्) वह है, जो सर्वत्र, सर्वदा अपनी स्वतन्त्र सत्ता से विद्यमान रहते हुए, विशेष रूप से सभी के अन्तःकरण में प्रगट रूप से “जीव” के बिलकुल समीप रहता है। जो अन्तर्यामी रूप से हम सभी जीवों” के भाव-विचार, सोच, समझ, चाह (उद्देश्य) तथा क्रियाओं आदि का तटस्थ दृष्टा रहते हुए कर्म फल देने वाला भी है। जो जड़ नहीं, चेतन है, खण्ड-खण्ड नहीं अखण्ड है। ऐसा सभी सद्‌ग्रन्थ कहते हैं। ऐसी महान ईश्वरीय सत्ता को सर्वभूत हितेरताः तथा स्वधर्म और सामान्य धर्मों का निष्ठा पूर्वक पालन करके प्रसन्न करने का प्रयत्न करना चहिये। इसी में कल्याण का मार्ग निहित है।

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शास्त्र कहते हैं – जो आकाश के स्वरूप को नहीं समझ पायेगा, वह भगवान श्री कृष्ण व श्री राम के सत् स्वरूप अर्थात् परमात्मा के स्वरूप को नहीं जान पायेगा, जो परमात्मा के स्वरूप को नहीं जान पायेगा, वह “जीवात्मा” अपने वास्तविक स्वरूप को कभी नहीं जान सकेगा, जो “जीव” अपने सच्चिदानन्दघन स्व स्वरूप को नहीं जान पायेगा वह पुनर्जन्म के बन्धन से मुक्त होकर भगवद्‌गीता के अनुसार सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा के साथ “एकीभाव ” को नहीं प्राप्त हो सकेगा। यही सभी शास्त्रों तथा श्रुतियों की सार बात है।

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शास्त्र कहते हैं – कल्याण की इच्छा रखने वाले लोगों को ऐसे किसी भी कार्य को नहीं करना चाहिए, जिसे करने से कर्तृत्वाभिमान के साथ-साथ देहाभिमान और अहंकार बढ़ता हो, जिससे जड़ चेतन की ग्रन्थि मजबूत होती हो। जिसके फलस्वरूप देह से देहान्तर की प्राप्ति होना अनिवार्य है।

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दूसरों के साथ वैसा ही बर्ताव (व्यवहार) करो, जैसा अपने और अपनों के साथ चाहते हो, यहीं सनातन और मानव धर्म है। यही शान्ति और सद्‌भाव का मार्ग है। इसी में सभी सदग्रंथों का सार निहित है

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सन्त कहते हैं – अपने उद्धार के लिए किसी प्रकार की आध्यात्मिक ‘साधना’ प्रारम्भ करने के पहले “साधक ” को सबसे पहले किसी शास्त्रज्ञानी व्यक्ति से भगवान् तथा माया के स्वरूप को रामचरितमानस अथवा श्रीमद्‌भगवद् गीता के आधार पर समझ लेना चाहिए। ऐसा न करने वाले व्यक्ति की जीवनभर की सम्पूर्ण साधना व्यर्थ चली जाती है, कोई लाभ नहीं मिलता है।

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संत कहते हैं- जब हम-आप में से कोई भी मिट्टी आदि से बना हुआ, यह विनाशी शरीर नहीं हैं। । तब भगवान् (ईश्वर) को अपने जैसी शरीर की आकृति (जन्मने मरने) वाला व्यक्ति क्यों और कैसे समझते हो? क्या यही बुद्धिमानी है ?
विवेक और तत्व विचार द्वारा हम असली भगवान् के वास्तविक स्वरूप को समझ सकते हैं। जिसका प्रतिपादन रामचरित मानस तथा भगवद्‌गीता आदि में अनेकों बार किया गया है।

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।।श्रीरामचरितमानस बोलती है “माया” एक ऐसी जड़ वस्तु – हैं, जो विलकुल असत् होते हुए भी साधारण मनुष्यों की तो बात ही क्या, बड़े-बड़े विद्वान,संन्यासियों, भागवत तथा श्री राम कथा आदि के श्रेष्ठ से श्रेष्ठ बक्ताओं, उपदेशकों, वेदांताचार्यॊ तथा बुद्धिमानों आदि के मन, बुद्धि, चित्त आदि को अपनी ओर बलात खींच लेती है। जिससे व्यक्ति सब कुछ जानते हुए भी माया में ही फसता चला जाता है । जीव अपने सच्चिदानंदघन आत्म स्वरूप में शुकदेव, जड़भरत, दत्तात्रेय, कबीर, नानक तथा परीक्षित आदि की भांति स्थित नहीं हो पाता है- अर्थात् देहाभिमान त्यागकर ब्रह्म भाव में स्थित नहीं हो पता है। जिसका मुख्य कारणा यह है कि “जीव के जीवन” का सम्पूर्ण व्यवहार “माया” के ही आश्रित चलता है। इसलिए “माया” ही उसे परम सत्य मालूम पड़ती है “जीव” का माया अर्थात् शरीर, मन, बुद्धि तथा चित्त आदि के साथ ‘एकीभाव’ में रहना ही जड़ चेतन की ग्रन्थि है। यही मायाकृत बन्धन है जो केवलअसली ‘सत्संग’ से ही छूट सकता है। अन्य कोई उपाय नहीं है। यही सभी सदग्रंथ कहते हैं ।

कृष्ण
स्वामी महेशानंद
9580882032
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