भागवत स्कन्द 11 अ 07 श्लोक 7-8 भगवान् कहते हैं-माया के द्वारा जिनका चित्त हर लिया गया है अर्थात् “माया” के द्वारा जो मोहित (भ्रमित) हो रहे हैं। उन्हीं को ऐसा दुराग्रह होता है, कि यह मेरा है, वह उनका है यह “गंगा” जी हैं, यह यमुना जी हैं, और यह दोनों का संगम है, यह पवित्र है, यह अपवित्र है, यह ब्राह्मण है, वह शूद्र या वैश्य है,यह शत्रु है, वह मित्र है, यह स्त्री है, मैं पुरुष हूँ, ये सीता हैं, ये राम हैं, ये राधा हैं, ये कृष्ण हैं, ये रूद्र हैं ये विष्णु हैं और ये लक्ष्मी, ये गणेश हैं, मैं सन्त-संन्यासी हूँ, वह गृहस्थ हैं, मैं हिन्दू हूँ, वह मुसलमान हैं मैं धनपति हूँ, वह कंगाल है, मैं विद्वान हूँ, मैं बुद्धिमान हूँ, ज्ञानी हूँ, वे मूर्ख हैं, यह कलियुग है, वह त्रेतायुग था, यह तीर्थ है, वह अतीर्थ है, ये-ये चारोधाम हैं, वह श्मसान है, यह मन्दिर है, वह मस्जिद है, यह गाय है, वह भैंस है, यह शुद्ध है, वह अशुद्ध है, यह नींच है, वह ऊँच है, यह अयोध्या है, वह मथुरा, वृन्दाबन, काशी है, आज दिवाली है, होली है, एका दशी या अमुक तिथि है या अमुक दिन है। “माया” का मुख्य कार्य यही है, कि जिस वस्तु से सत्ता पाती है, उसी को ढक देती है।उद्धव जी! व्यवाहार दशा में इसीप्रकार के सभी देश, काल, वस्तु बिलकुल सत्य प्रतीत (मालुम) होते हैं। परमार्थ ज्ञान होने पर उनका रंच मात्र भी अस्तित्व सिद्ध नहीं होता है- जैसे स्वप्न में देखे हुए देश, काल, वस्तुओं का जागने पर रंच मात्र भी अस्तित्त्व नहीं रहता है। इसलिए तुमसे कहता हूँ, कि “माया” बहुत शक्तिशाली है, बड़े-बड़े विद्वानों, उपदेशक, शास्त्रज्ञ, बुद्धिमान लोग भी “माया” में फसे ही रहते हैं, जिसका प्रमाण यह है कि वे देश, काल, वस्तु के प्रति सत्यत्व और महत्व बुद्धि नहीं छोड़ पाते हैं। उद्धव जी ! धन-सम्पत्ति, काम, क्रोध, और लोभ तथा शरीर और सम्बन्धी, गुरू और शिष्य आदि सभी वस्तु के अन्तरगत ही हैं। इस “महामाया” से बचने का उपाय केवल एक ही है। वह यह है कि “ब्रह्म” और माया” अर्थात् “आत्मा-अनात्मा” अर्थात् अधिष्ठान और अध्यास्त” अर्थात् “चेतन और अचेतन वस्तु का विवेक” किसी “विवेकी ‘सत्पुरुष के पास रहकर ठीक तरह से समझे । तत्पश्चात अचेतन की उपेक्षा करके सतत् (निरन्तर) मुझ सर्वआत्मा चेतन वस्तु का जो अकाशवत पूर्ण हैं, उसी का विचार स्मरण, दर्शन, ध्यान तथा मेरे ही ओम नाम का ‘जप’ सदैव होते रहने का सफल अभ्यास डाले, इससे मैं प्रसन्न होकर उसके आज्ञानान्धकार को दूर करके, ज्ञान में स्थित करा दूँगा। जैसा कि मैनें गीता के 7वें अ. के 14वें तथा 10वें अ के 9-10-11वें श्लोकों में कहा है।