मनोराज्य का अर्थ है- मानसिक कल्पना:-
यह हमारा शरीर है, पुत्र है, पुत्री है, भाई है, पिता है, माता है, नाती है, पति है, पत्नी है आदि । यह हमारा प्लाट है मकान है, सम्पत्ति है, धन है, गाँव है आदि। मै हिन्दू हूँ, मुसलमान हूँ, जैनी हूँ, सिन्धी हूँ, आदि । मैं ब्राह्मण हूँ, पण्डित हूँ, ज्ञानी हूँ, विद्वान हूँ, ठाकुर हूँ, यादव हूँ, पाल हूँ, दलित हूँ वैश्य हूँ, तिवारी हूँ, दुबे हूँ, चौबे हूँ, पाण्डेय हूँ , गुप्ता हूँ आदि ।आदमी हूँ, स्त्री हूँ, सन्त हूँ, संन्यासी हूँ, गृहस्थ हूँ, धनी हूँ, गरीब हूँ आदि । मास्टर हूँ, डॉ० हूँ, वकील हूँ, मन्त्री हूँ , विधापक हूँ, प्रधान हूँ, इन्जीनियर हूँ अधिकारी हूँ, कर्मचारों हूँ आदि। मैं सुखी हूँ, दुखी हूँ, बाल, बुद्ध, युवा हूँ , इत्यादि ऐसी ही और भी बहुत सी बातें मनोराज्य के अन्तरगत आती हैं। क्योंकि इनका सत्य से कोई सम्बन्ध नहीं है।
केवल व्यावहारिक सत्ता में कहने मात्र को वाणी तथा मन का विलास मात्र है। शास्त्र कहते हैं, व्यावहारिक सत्ता स्वप्न की सष्टि के समान ही है।
यह बात किसी सत्पुरुष के सान्निध्य में कुछ समय तक रहकर तत्त्वविचार करने पर ही ज्ञात हो सकती है। मैं क्या हूँ, मेरा क्या है? इसकी सही-सही जानकारी होने पर “माया-मोह” का निवारण हो जाता है; परमार्थ का पता चलता है, नहीं तो पूरा जीवन मनोराज्य में ही व्यतीत हो जाता है। पुनरपि जननम, पुनरपि मरणम् की प्रक्रिया मनुष्य तथा पशु-पक्षी आदि के शरीरों में चला ही करती है। क्योंकि मिथ्या ज्ञान के अभिमान में अहंता, ममता और वासना की जड़े बढ़ती ही जाती हैं। भगवान श्रीकृष्ण के 15 वें अध्याय का उपदेश व्यर्थ हो जाता है। जन्म-मृत्यु, जरा व्याधि से छुटकारा नहीं मिलता है।
शास्त्र कहते हैं, सत्य को जानने के लिए (पाने) असत् से अथवा असीम को समझने के लिए, ससीम से अथवा नित्य को जानने के लिए अनित्य से अथवा निराकार को जानने के लिए साकार से अथवा चेतन को समझने के लिए अचेतन से अर्थात् ब्रह्म को जानने के लिए माया से अर्थात् कारण को समझने के लिए कार्य से अर्थात् स्वरूप को जानने के लिए रूप से अर्थात् अधिष्ठान में अध्यस्त की सत्ता ही नहीं है, इसे समझने के लिए अध्यस्त से, मन, बुद्धि तथा चित्त को हटाना ही पड़ता है ।अनादि काल से ऐसा ही नियम है।
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