॥ फाँसी का फंदा ॥
फांसी के फंदे का अर्थ है-“ साक्षात् मृत्यु”
यदि विचार करके देखें तो यह फंदा हम सभी के गले में पड़ा हुआ है। कल अथवा इन्हीं सात दिनों में यह फाँसी का फंदा हमारे गले में पड़ने वाला है।
राजा परीक्षित को ज्ञात हो गया कि इन्हीं सात दिनों में तक्षक नाग अर्थात् सर्प के काटने से मृत्यु हो जाएगी। उन्होंने मृत्यु से बचने का उपाय खोज लिया।
शास्त्रों में “भक्ति” तथा “तत्त्व ज्ञान” दो साधन मुख्य रूप से मृत्यु से बचने के बताये गये हैं। जिसमें भक्ति साधन है, ज्ञान साध्य है।निष्काम कर्म भक्ति का ही अंग है ।
जिस व्यक्ति अर्थात् “जीव” को यह फाँसी का फंदा निर्भया कांड के दोषियों की तरह प्रत्यक्ष विचार पूर्वक दिखाई देता है।
उसी का मन, निरन्तर ” हरि: ” अर्थात् जो व्यापक (आकाशवत्) पूर्ण तत्त्व है । उसी के स्मरण, ध्यान नाम जप, शास्त्र अध्ययन तथा विचार आदि में तल्लीन होता है।
उसे खाना, पीना, हसना, बोलना, सगे सम्बन्धियों से मिलना-जुलना, घूमना फिरना तथा देखने,- सुनने आदि से अरुचि हो जाती है। इसी का नाम “वैराग्य” है।
तात्पर्य यह है कि धन संपत्ति भोग-विलास, पद-प्रतिष्ठा आदि से अरुचि अर्थात वैराग्य होकर ईश्वर में अनुराग हो जाता है।
इसी को ईश्वर भक्ति कहते हैं। जिसके अन्तःकरण की ऐसी स्थिति ईश्वर कुछ वर्षों तक लगातार देख लेता है।
उसी के ह्रदय में विराजमान ईश्वर उसे तत्त्वज्ञान के सभी साधन उपलब्ध करा देता है तथा स्वयं भी ज्ञानोपदेश कर देता है। जिस ज्ञान को पाकर जीव ‘मृत्यु’ के फंदे से ‘मुक्त’ हो जाता है
यदि किसी का चित्त पहले से ही शुद्ध है, तो वह सीधे शुकदेव तथा जड़ भरत जैसे तत्त्वज्ञानी महापुरुष से तत्त्वज्ञान प्राप्त करके फाँसी के फंदे अर्थात पुनर्जन्म के बन्धन से मुक्त हो जाता है।