परमार्थ दृष्टि
सद्गुरु से परमार्थ दृष्टि प्राप्त होनेपर ज्ञात होगा , कि राधा – कृष्ण , सीता – राम , लक्ष्मी – नारायण अथवा भवानी और शंकर आदि प्रथक – प्रथक नहीं हैं । न इनका कभी वियोग होता है , न संयोग । इसी प्रकार ब्रह्मा , विष्णु , महेश ये तीन नहीं हैं तत्वतः एक ही है । न कोई बड़ा न छोटा । माया – ब्रह्म , प्रकृति – पुरुष , जीव – ईश्वर , क्षर – अक्षर , आत्मा – अनात्मा , क्षेत्र – क्षेत्रज्ञ , जड़ – चेतन , ज्ञान – अज्ञान तथा बिम्ब – प्रतिबिम्ब आदि कहनेमें प्रथक – प्रथक मालूम पड़ते हैं , वास्तव में एक ही है । इसी प्रकार ईश्वर , जीव , जगत् व्यवहारमें तीनों अलग – अलग होते हुए भी परमार्थता एक ही हैं । जैसे व्यवहार में अधिष्ठान और अध्यस्त , दृष्टा और दृश्य , कारण और कार्य प्रथक – प्रथक कहे जाते हैं , परन्तु परमार्थ दृष्टि से देखने पर एक ही है । बुद्धिजीवी मनुष्य को ऐसी ही परमार्थ दृष्टि प्राप्त करने का उद्देश्य ( लक्ष्य ) बनाना चाहिए । क्योंकि यही उपनिषदों , ब्रह्मसूत्र आदि का अत्यन्त गोपनीय रहस्ययुक्त अद्वैत वेदान्त ज्ञान है ।
|| भागवत कथा का साराँश ।।
प्रिय परीक्षित ! यह तो कोई नहीं समझता है , कि देह ही आत्मा है । सभी लोग जानते हैं , कि देह और आत्मा अलग – अलग हैं । परन्तु इस रहस्य ( सत्य ) को नहीं जानते हैं , कि सर्वव्यापी , सर्वप्रकाशक , निराकार , अव्यक्त , अखण्ड , अविनाशी , अचल तथा जन्म – मृत्यु , बन्ध – मोक्ष आदि से रहित ‘ सर्वात्मा ‘ ही ‘ मैं हूँ । इस सत्य का अभिमान रखने वाला ज्ञानी – महापुरुष कहलाता है । इस ज्ञान के अतिरिक्त मुक्ति का अन्य कोई साधन ( उपाय ) नहीं है , यही परम सत्य है ।
।। ज्ञानी की अद्भुत महिमा ।।
जिसे अपने विशुद्ध स्वरूप का बोध हो जाने से सत् स्वरूप में सुदृढ़ स्थिति प्राप्त हो गई है । ऐसे तत्त्व ज्ञानी व्यक्ति के अन्तःकरण में यदि कोई इच्छा उठती है , जिसे वह इन्द्रियों के द्वारा पूर्ण करता है , तो ऐसी हजार – हजार इच्छायें उसे बन्धन में नहीं डाल सकती हैं । क्योंकि वह अन्तःकरण तथा इन्द्रियों आदि से परे , इनका दृष्टा ( जानने वाला ) प्रकाशक मात्र रहता है ।
ऐसा व्यक्ति यदि परइच्छा से गंगा व संगम आदि के स्नान को जाता भी है । तब भी उसकी कोई हानि नहीं है । यदि वह आरती , पूजन , पाठ , यज्ञ , जप तथा हवन आदि में भी कर्तृत्व तथा महत्त्व बुद्धि से नहीं , बल्कि लोकसंग्रह की दृष्टि से प्रवृत्त दिखाई देता है , तो भी वह जीवन्मुक्त ही है । उसकी देह से हजार – हजार प्रवृत्तियाँ दिखाई दें , फिर भी उसकी मुक्ति में कोई संदेह नहीं । क्योंकि ज्ञानी के समस्त कार्य अभिनय मात्र ही हैं ।
ज्ञानी के ज्ञान का अर्थ है देह , मन , बुद्धि , चित्त , इन्द्रियों तथा मिथ्या अहंकार आदि से परे । इन सभी का प्रकाशक , आत्म – चैतन्य सत्ता मात्र , देहातीत . गुणातीत . सत् स्वरूप में अवस्थित , एक अन्तःकरण का प्रकाशक नहीं , जगत् में जितने अन्तःकरण तथा इन्द्रियाँ आदि हैं , उन सभी का प्रकाशक । उत्पत्ति , स्थिति , प्रलय जिसकी सत्ता पर अनवरत हुआ करते हैं , ऐसे विज्ञान में स्थित व्यक्ति को उपनिषद् “ज्ञानी“ बोलते हैं । शास्त्र कहते हैं , ज्ञानी की प्रवृत्ति भी निवृत्ति ही है , अज्ञानी की निवृत्ति, प्रवृत्ति ही है । ज्ञानी स्व दृष्टि में “ब्रह्म“ होता है , पर दृष्टि में नहीं । रोना – हसना , शान्ति – अशान्ति , सुख – दुःख , भय – प्रेम तथा व्याकुलता आदि अन्तःकरण के धर्म हैं , आत्मा के नहीं । ज्ञानस्वरूप आत्मा तो इन सभी का प्रकाशक मात्र है ।
घ्यान रहे विधि – निषेद का अच्छी तरह से पालन करने के पश्चात “सद्गुरु“ से ऐसे विशुद्ध ज्ञान की प्राप्ति होने पर ज्ञानी व्यक्ति के शरीर से निषेधात्मक ( विकर्म ) कर्म तो हो ही नहीं सकते है । यदि होते हैं , तो वह अज्ञान की कक्षा में ही है ।