जीव की उत्पत्ति बंधन तथा मुक्ति

जीव की उत्पत्ति बंधन तथा मुक्ति

जीव की उत्पत्ति बंधन तथा मुक्ति

जिसप्रकारआकाश के प्रतिबिंब तथा आकाश में भेद नहीं है अर्थात् दो आकाश नहीं है । सूर्य और प्रतिबिंबित सूर्य दो नहीं है, मुख और मुखाभास दो नहीं हैं । सूर्य तथा सूर्य का प्रकाश दो वस्तुयें नहीं है, चीनी तथा मिठास दो चीजें नहीं हैं । उसीप्रकार चेतन आत्मा तथा उससे उत्पन्न चिदाभास (जीव) दो नहीं है अर्थात् वास्तविक अस्तित्व एक ही है । इसीलिए वास्तविक सत्ता अर्थात् “ब्रह्म” को अद्वितीय कहा जाता है। अत: शास्त्र का यह कथन पूर्णतया सत्य है “एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति” ।

जीव की उत्पत्ति बंधन तथा मुक्ति

आप देखते हैं, एक ही सूर्य अथवा चंद्र से असंख्य प्रतिबिंबित सूर्य – चंद्र उत्पन्न हो जाते हैं। परंतु वास्तव में असंख्य सूर्य चंद्र होते नहीं हैं। इसीप्रकार एक अखंड, असीम चेतन सत्ता से अगणित प्रतिबिंब असंख्य अंतःकरणों में उत्पन्न होकर चिदाभास (जीव) बन जाते हैं। यद्यपि यह चिदाभास चेतन जैसा ही प्रतीत होता हैं, परंतु इसकी स्वयं की चेतना नहीं है। असली चेतन तत्व वही है, जिसका यह प्रतिबिंब है। फिर भी इस नकली चिदाभास से ही अंतःकरण इंद्रियों, तीनों शरीरों तथा बाह्य कर‌णों आदि में चेतना का संचार होता रहता है। जिससे यह आभास चेतन देहादि रूपी संघात को अपना रूप-स्वरूप समझने लगता है। यही जीवात्मा की अविद्या है- अर्थात् यही जीव का मोह है। इसी विपरीत ज्ञान के कारण अथवा भ्रांति के कारण “पुनरपि जननम् पुनरपि मरणम् जठरे जननी जठरे शयनम्” की यात्रा जीव की प्रारंभ हो जाती है, यही जीव का बंधन है।

स्वरूप से ‘जीव’ माया का स्वामी होते हुए भी माया-मोह के अधीन हो जाता है। ध्यान रहे चेतन तत्व अद्वितीय होते हुए भी सद्वितीय अर्थात् दो प्रकार का मालूम पड़नेे लगता है। एक असली दूसरा नकली, फिर भी जीवन का समस्त व्यवहार अर्थात् मन, बुद्धि तथा इंद्रियों आदि का नकली चेतन के आश्रित ही चला करता है। असली चेतन स्वयं प्रकाश है, दूसरा परप्रकाश है अर्थात् जीव का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। तात्विक दृष्टि से जीव और ब्रह्म दोनों एक हैं। स्वयं प्रकाश का अर्थ है- स्वयम् की चेतना – (स्वयं की सत्ता)/परप्रकाश का अर्थ है, स्वयं की सत्ता न होकर दूसरे की सत्ता पर आधारित होना । जीवात्मा के सहित मन, बुद्धि, चित्त, तीनों शरीरों तथा इंद्रियों आदि की चेतना स्वयम् की नहीं है, इसलिए इन्हें परप्रकाश कहते हैं।

गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है, मैं उसके सामने से अदृश्य नहीं होता हूं, न वह मेरे सामने से कभी अदृश्य होता है। इस कथन में “मैं” तथा ‘मेरे’ का अर्थ व्यापक अखंड आत्म चैतन्य सत्ता है। इसप्रकार कथन के तात्पर्य को समझें, तब ज्ञात होगा, कि बिंब रूपी आत्म चैतन्य से प्रतिबिंब रूपी चिदाभास (जीव) अधिष्ठान तथा अध्यस्त दृष्टि से एक दूसरे से कभी अदृश्य हो ही नहीं सकते हैं। सूर्य का प्रतिबिंब क्या कभी सूर्य से अदृश्य हो सकता हैं, नहीं। अतः वेदांत अर्थात् अध्यात्म विद्या की बातें भले ही मिथ्या ज्ञान के अभिमान में हमारी समझ में न आवें; परंतु जीवात्मा और परमात्मा में रंच मात्र भी तत्व दृष्टि से भेद नहीं है। सद्गुरु की शरण में रहकर यह ज्ञान अर्थात् विद्या भली प्रकार समझने पर दृढ़ निश्चय हो जाता है कि माया और ब्रह्म अथवा जीव तथा ब्रह्म में तात्विक दृष्टि अर्थात् परमार्थ दृष्टि से कोई भेद नहीं है। मुमुक्षु साधकों को “जीवात्मैक्य” अथवा “ब्रह्मत्मैक्य” ज्ञान के बिना मुक्ति अन्य किसी भी साधन से संभव नहीं है। यह बात साधक को अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए। जीवात्मा परमात्मा के ऐक्य का ज्ञान ही वास्तविक ज्ञान है, शेष सब अज्ञान ही अज्ञान है। श्रुतियों का यह कथन पूर्णतया सत्य है।

यह नियम है कि कार्य सदैव कारण में, अध्यस्त सदैव अधिष्ठान में अथवा रूप सदैव स्वरूप में ही विलय होता है, अतः देह का विलय पंच तत्वों में तथा ज्ञान होने पर ‘जीव’ का विलय अखंड असीम, निराकार, निर्विकार, अनादि अनंत आत्म चैतन्य सत्ता में ही होगा। यही “भक्ति” तथा “मुक्ति” का वास्तविक स्वरूप है।

I am Anmol gupta, i warmly welcome you to APNE KO JANO, and hope you liked this article, My mission is to inspire millions of people, i can show you the right path to go ahead.

0 thoughts on “जीव की उत्पत्ति बंधन तथा मुक्ति

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back To Top