कल्याण का मार्ग
शास्त्र कहते हैं यदि कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति विचार करके देखे, तो ज्ञात होगा, कि उसका जो भी व्यवहार (वर्ताव) सामने वाले के प्रति हो रहा है, वह ईश्वर के साथ ही हो रहा है। क्योंकि गीता,मानस तथा पुराण आदि “जीव” को ईश्वर का अंश बतलाते हैं। भगवान श्री कृष्ण ने तो कहा है,सभी शरीरों में “जीव” भी मैं ही हू़ँ।
आप जानते भी हैं कि जब तक शरीर में जीव रहता है ,तभी तक बात-चीत, लेना-देना, देखना, सुनना, खाना-पीना तथा जानना आदि रहता है।”जीव”के निकल जाते ही सब व्यवहार समाप्त हो जाते हैं। अब आपका सामने पड़े हुए शरीर के साथ किसी प्रकार का व्यवहार क्यों नहीं होता है ? यदि शरीर के साथ व्यवहार हो रहा होता तो निर्जीव शरीर के साथ भी होना चाहिए था। इस ज्ञान के स्थिर न रहने के कारण अथवा अहंकार के कारण जाने -अनजाने मन, इंद्रियों के अधीन रहने वाले मनुष्यों से अधर्म, अन्याय तथा अत्याचार आदि के द्वारा जीवन भर पाप ही पाप हुआ करते हैं।जिसका फल अविद्या ग्रसित “जीव” को विवश होकर निकृष्ट योनियों में भोगना पड़ता है। ध्यान रहे कि आपके शरीर में ही ईश्वर, जीव तथा परात्पर ब्रह्म तीनों का निवास है। यहाँ पर यह बात समझ लेना आवश्यक है कि “जीव “को कष्ट, पीड़ा ,दु:ख, सुख तथा आपत्ति विपत्ति आदि भोगने पर अंतर्यामी ईश्वर अथवा सच्चिदानंदघन परब्रह्म परमात्मा को कष्ट, पीड़ा ,सुख ,दु:ख, हर्ष, विषाद आदि होता होगा,सो ऐसी बात नहीं है।”जीव” तो चेतन आत्म तत्व की छाया अर्थात् प्रतिबिंब मात्र है। जिस प्रकार किसी के शरीर अथवा उसके मुख के पड़ने वाले आभास को चोट पहुंचाने पर शरीर अथवा मुख को चोट नहीं पहुंचती है। उसी प्रकार “जीवात्मा” को सुख-दुख, तथा कष्ट- पीड़ा तथा विश्राम आदि के भोगने पर ईश्वर एवं ब्रह्म अप्रभावित रहते हैं। जब कोई जीव मनुष्य शरीर में आकर स्वार्थ बुद्धि का परित्याग करके सत्य, धर्म, न्याय तथा निस्वार्थ सेवा के मार्ग पर चलता है, तो ईश्वर उसे विवेक,वैराग्य आदि six-(6) आध्यात्मिक संपत्तियां देता है। जिनके बल पर उस “जीव” को अपने सच्चिदानंदघन अखंड,अनंत, अनादि सत् स्वरूप का ज्ञान प्राप्त होता है।”जीव” इस ज्ञान से देहादि से मिथ्या तादात्म्य संबंध की भ्रांति को त्यागकर सत् स्वरूप से तद्रूप (एकाकार) होकर परमात्मा का साक्षात्कार अर्थात् अपरोक्षानुभूति करता है,यही ‘भक्ति’ तथा ‘मुक्ति’ की पूर्णावस्था है । परमात्म तत्व का साक्षात्कार ज्ञान नेत्रों से होता है,चर्म चक्षुओं से नहीं। ऐसी स्थिति में पहुंचने के लिए “तत्वज्ञानी गुरु “की परमआवश्यकता होती है।
भगवद् गीता के अठारहवें अध्याय के 54 व 55नवें श्लोक में भगवान् ने इसी को “पराभक्ति” की प्राप्ति कहा है। अस्तु मानव मात्र के लिए शास्त्रों का यही उपदेश है,कि सभी प्राणियों, विशेषकर मनुष्यों के साथ जो भी व्यवहार करें, वह ईश्वर की मान्यता रखकर करें। इसी में जीव के “कल्याण” का रहस्य छिपा हुआ है महापुरुषों का कथन है-