||आत्मज्ञान प्राप्ति का मार्ग ||

||आत्मज्ञान प्राप्ति का मार्ग ||

आत्मा पर शरीर का आवरण अर्थात् माया का आवरण चढ़ जाने से जीव स्वयं को देह मान बैठता है। फिर प्राप्त शरीर को एक सांसारिक नाम दे दिया जाता है। काल्पनिक नाम के सम्बोधन को ही वह अपना सम्बोधन मान बैठता है। यहाँ से ‘जीव’ के साथ गड़‌बड़ी प्रारम्भ हो जाती है। जीवन भर इसी भ्रम के साथ जीव की स्थिति बनी रहती है। चूँकि असत्य के साथ जीवन का प्रारम्भ होता है। इसलिए असत्य को सत्य मानकर वह उससे जीवन भर संयुक्त रहता है। इस कारण अपने स्वरूप से दूर होता जाता है। हाँ, यदि उसे कोई सद्‌गुरू मिल जाए, तो जीव अपने नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त सत स्वरूप को जान सकता है। सद्गुरु की प्राप्ति किये बिना हृदयस्थ चैतन्य स्वरूप आत्म तत्व की अपरोक्षानुभूति नहीं हो सकती।

चाहे करोड़ों उपाय क्यों न कर लिए जाँये। हाँ सद्‌‌गुरु की प्राप्ति करना भी सरल नहीं है। पूर्ण प्रकाशमान संत जो परमतत्व की अनुभूति कर चुके हैं, वे ही अपने अनुभव के आधार पर जीवात्मैक्य ज्ञान करा सकते हैं। यहाँ “साधक” को अत्यन्त सावधान रहने की आवश्यकता है। इस राह में धोखे भी बहुत हैं। मायावी लोग ऊपर से आडम्बर बना लेते है, उनके आडम्बर में भोले भाले लोग फँस जाते हैं। इससे ‘जीव’ का हित न होकर अहित अधिक हो जाता है। साधक को चाहिए, पहले वह भगवान् की निस्काम भक्ति में संल्गन होकार निरन्तर स्माण-ध्यान, स्वाध्याय, जप तथा आर्त होकर पुकारे, प्रार्थना करे, भगवान की महिमा आदि का एकांत में गान करें। निस्वार्थ भाव से जन कल्याण के कार्य करे, जनहित की भावना रखें तथा सेवा करें साथ ही साथ अपने अंदर की बुराइयों पर दृष्टिपात करते हुए अन्तःकरण की शुद्धि करने में तत्परता से लगे। यह सब उसीप्रकार करता रहे जैसे किसान बीज बोने से पहले खेत की तैयारी करने में लगता है। इस प्रकार लम्बे समय तक करते रहने पर ईश्वर की कृपा स्वयं ही होती है। जिसके फलस्वरूप सद्‌गुरू की व्यवस्था स्वयमेव हो जाती है। भगवान स्वयं ही अपने भक्त को तत्त्वज्ञान प्राप्त कराने हेतु सद्गुरू की व्यवस्था कर देते हैं। यही अनादि काल से चली आ रही “सत्य” प्राप्ति की परम्परा है। इसके अतिरिक्त भटकने से जीव अपनी ही हानि करता रहेगा। इसलिए कल्याण कामी व्यक्ति को चाहिए कि वह भ्रमित न हो। उसे अच्छी तरह समझ लेना चाहिए, कि संसार में उसका हित चाहने वाले भगवान तथा संत के अतिरिक्त और कोई नहीं है। इसलिए उन्हीं की शरण में रहकर मन को निर्मल करने में लगना चाहिए।

ओम् शान्ति: ओम् शान्ति: ओम् शान्ति:

महेशानंद 9580882032

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