अपनी-खोज
प्रश्न:- आँख से कौन देखता है, कान से कौन सुनता है, स्वाद को कौन जानता है तथा स्वाद को कौन ग्रहण करता है ?
आपका उत्तर होगा:- “हम” |
प्रश्न:- आंख की मन्दता, पटुता, कान की मन्दता, पटुता आदि का कौन जानता है
?
आप कहेंगे:- “हम” |
प्रश्न – मन की चचलता, शान्ति, अशान्तिा, स्थिरता तथा बुद्धि की मन्दता, प्रखरता तथा इनके परिवर्तन और निश्चय आदि को कौन जानता है ?
आप कहेंगे:-‘हम’ अर्थात् मैं” ।
प्रश्न :- करण अर्थात् हाथ, पैर,वाणी आदि किसके इसारे पर अपने अपने कार्य में प्रवृत्त होते हैं, किसके इसारे पर रुक जाते हैं ?
आप कहेंगे :- मेरे (हमारे) !
प्रश्न:- कष्ट, पीड़ा, दर्द तकलीफ, आराम तथा सुख-दुःख आदि को कौन जानता हैं ?
आप कहेंगे:– “हम” ।
प्रश्न:- देश, काल, वस्तु के परिवर्तन अथवा शरीर मन बुद्धि, सोच आदि के परिवर्तन को कौन जानता है ?
आप कहेंगे:– ” हम” ।
प्रश्न :- जाग्रत की भाँति ही स्वप्न के दृश्यों को कौन देखता हैं, तथा सुषुप्ति के प्रगाढ़ आनन्द को कौन जानता है ? अथवा कौन भोगता है ?
आप कहेंगे:- “हम ” |
प्रश्न :- बाल्यावस्था, युवावस्था तथा वृद्धावस्था को कौन जानता (देखता) है ?
आप कहेंगे:-“हम” ।
प्रश्न :- आप जिसे “हम” बोलते आ रहे हो, वह एक है या अनेक ?
आप कहेंगे:- “हम ” अथवा मैं एक ही है, अलग अलग नहीं है।
प्रश्न:- क्या हाथ, पैर, आँख, कान, नाक, पेट, पीठ, माँस, रक्त, हड्डी नस- नाड़ियाँ आदि आपको जानती हैं ?
आपका उत्तर होगा: – नहीं |
प्रश्न:- क्या आँख, कान नासिका अर्थात् ज्ञानेन्द्रियाँ एवम् कर्मेंद्रियां अपने को (स्वयं को) जानती हैं अथवा आपको जानती हैं ?
आपका उत्तर होगा:- न ये अपने को जानती हैं, न मुझे जानती है और न मुझे देख पाती हैं, मैं इन्हें तथा इनकी गतिविधि को जानता हूं।
इसीप्रकार के और भी प्रश्न हो सकते हैं | जिनके उत्तर में आप ‘ मैं’ अथवा ‘हम’ ही कहेंगे।
अब आपसे भारतीय ऋषि, मुनि पूंछते है कि जिसे आपने मैं अथवा हम कहा है, वह क्या है, कौन है, कैसा है?
अब आप कहेंगे मैं नहीं जानता हूँ ।
आप यह भी जानते होंगे, कि जानी जाने वाली वस्तुओं से अथवा दृश्यों को देखने वाला दृष्टा न्यारा अर्थात् प्रथक होता है।
जब कोई कहत है, यह है वस्तु हमार ।
कहने वाला अलग है, करिये खूब विचार ||
हमारी अध्यात्म विद्या कहती हैं कि जो अपने को न जाने, अन्य को भी न जाने, वह वस्तु ईंट, पत्थर, लोहा, लकड़ी, मिट्टी तथा वस्त्र की भाँति जड़ होती है। तथा जो वस्तु अपने को भी जाने कि मैं हूँ। अन्य को भी जाने देश, काल, वस्तु को भी जाने वह चेतन होती है।
अब आप विचार पूर्वक पक्का निश्चय व निर्णय करके बताये आप क्या हैं, कौन हैं, कैसे हैं? जड़ हैं कि चेतन ?
प्रश्न:- जिसे शरीर के जन्म के साथ आप लाये नहीं, शरीर की मृत्यु के साथ लेकर जाओगे नहीं, उसके साथ मेरा-मेरी का सम्बन्ध सच्चा है अथवा झूठा ?
उत्तर में आप क्या कहेंगे ? झूठा या सच्चा?
प्रश्न:-यदि कोई भोजन करने जा रहा हो, उसी समय कोई आ कर कहे, भोजन में विष मिला है, तो वह क्या करेगा ? भोजन का परीक्षण करेगा अथवा भोजन करेगा ?
आपका उत्तर होगा परीक्षण करेगा भोजन नहीं |
इसी दृष्टान्त के आधार पर देखें कि जब सभी शास्त्र व सद्ग्रन्थ बार बार कहते हैं कि तुम शरीर आदि नहीं हो, तुम आकाशवत् परिपूर्ण आत्म चैतन्य, अविनाशी, अखण्ड सच्चिदानन्दघन सत्ता मात्र हो । तब तुम्हे सद्ग्रन्थों की बात पर विश्वास क्यों नहीं होता है? विचार पूर्वक परीक्षण क्यों नहीं करते हो, क्या कठिनाई हैं? व्यर्थ में अपने को न जानने के कारण हजारों प्रकार की योनियों में जन्म-मृत्यु के कुचक्र में पड़े हुए हो । शास्त्र कहते हैं- जीव ने अपने स्वरूप की अज्ञानतावश देह में हम भाव रखने के कारण अनेकों प्रकार के अभिमान जितनी सत्यता से धारण कर रखे हैं। उन सबका परित्याग करके तत्वज्ञानी सद्गुरु के समीप रहकर आत्माभिमानी बनने की कला यदि सीख ले, तो ईश्वर भी उसे बन्धन में नहीं डाल सकता है। क्योंकि आप अर्थात् (जीव) और ईश्वर दोनों जिस सत्ता में कल्पित हैं, वही सत्ता तुम्हारा (जीव) वास्तविक स्वरूप है – असली स्वरूप है
रामायण में लिखा है –
जो सबके रहे ज्ञान एकरस।
ईश्वर जीवहि भेद कहो कस। ।
मनुष्यों की गलती अथवा भूल (गलतफहमी) मात्र इतनी है, कि जो बात बिल्कुल असत्य है, झूठी कल्पना है, अविश्वसनीय है, उस बात पर विश्वास करके, सत्य मानकर जीवन व्यतीत कर रहे हैं। श्रीकृष्ण व श्री राम तथा ऋषियों की अनुभव युक्त वाणी पर विश्वास और विचार नहीं करते हैं। जिसका भगवान श्रीकृष्ण व श्री राम की वाणी पर विश्वास नहीं है, वह इन पर श्रद्धा व विश्वास कैसे कर सकता है? ध्यान रहे ज्ञान, वैराग्य, भक्ति तथा त्याग, तपस्या, अन्तरंग होना चाहिए, तभी ये असली होंगे, बहिरंग तो दम्भ के अन्तरगत माने गये हैं जिनका परिणाम शून्य रहता है। अन्तरंग ज्ञान, वैराग्य, भक्ति तथा त्याग, तपस्या को आवश्यकता पड़ने पर प्रगट करना बुरा नहीं है, शास्त्र सम्मत है।
तन पवित्र सेवा किए, धन पवित्र किए दान।
मन पवित्र हरि स्मरण से तब मिटिहै अज्ञान।
|| ओम् शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
स्वामी महेशानंद
9580882032