अध्यात्म विद्या से लाभ
सबसे पहले सभी को यह समझना चाहिये कि अध्यात्म ज्ञान के बिना मानव कितनी भी विद्यायें पढ़ले अथवा कितना भी टेकिनकल ज्ञान प्राप्त करेले अथवा कितनी भी भौतिक सम्पत्ति बढ़ा लें, फिर भी उसका जीवन अन्धे और लंगड़े व्यक्ति के समान ही है। यह विद्या दो-चार वर्ष गुरु-शिष्य परम्परा से स्कूल और कालेजों की भाँति किसी ब्रह्मवेत्ता से पढ़ी जाती है। पुस्तकों के पढ़ते रहने से वास्तविक लाभ नहीं होता है। अनादि काल से यही नियम है।
लाभ
- – व्यक्ति को ईश्वर जीव, जगत् के बारे में निर्भ्रान्त ज्ञान अर्थात् वास्तविक ज्ञान प्राप्त होता है।
- – ‘माया’ और ‘ब्रह्म’ अर्थात् माया और परमार्थ सत्ता, के बारे में यथार्थ जानकारी प्राप्त हो जाती है।
- – भगवान् के बारे में ठीक २ जानकारी हो जाती है।
- – ‘जीव’ स्वरूप से शुद्ध सच्चिदानन्द तत्व से एक होते हुए भी पुनर्जन्म के बन्धन में कैसे पड़ जाता है ।
- -‘माया’ और ‘मोह’ की निवृत्ति हो जाती है। जिससे पुनर्जन्म नहीं होता है।
- – दृष्य के प्रति अनुराग समाप्त होकर ईश्वर से अनुराग हो जाता है।
- – “विवेक” पूर्ण रूप से विकसित हो जाता है।
- – सभी मानसिक रोगों का निवारण हो जाता है। सुख-दुःख, जन्म-मृत्यु, बन्ध-मोक्ष की सही-सही जानकारी हो जाती है। जिससे इनका निराकरण किया जा सकता है।
- -अहंकार अर्थात् देहाभिमान गलित हो जाता है। जिससे ” जीव ” आत्म भाव में स्थित हो जाता है।
- -‘जगत्’ और ‘संसार’ इन दोनों की रचना किसने और कैसे की है, इसका भी अच्छी तरह बोध हो जाता है।
- -‘जीवात्मैक्य’ तथा ‘ब्रह्मात्मैक्य’ ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है।
- – कृष्ण, वासुदेव, राम, विष्णु, नारायण, शिव, हरिः, ब्रह्म, अल्लाह, खुदा, आत्मा, परमात्मा, परमेश्वर,भगवान, गणेश, गौरी, लक्ष्मी, ईश्वर तथा जीव आदि एक ही अखण्ड,परिपूर्ण सत्ता के सापेक्ष संबोधन मात्र है। यह जानकारी हो जाती है।
- -हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, इसाई, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा वर्ण, जाति गत ऊँच-नीच की भ्रान्ति समाप्त हो सकती है।
- -धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य, ज्ञान- अज्ञान, जन्म-मृत्यु, बन्ध-मोक्ष के विषय में सही-सही जानकारी हो जाती है।
- -“आत्म ज्ञान “तथा ‘भक्ति की प्राप्ति “एक साथ हो जाती है, जिससे जीवन का परम कर्तव्य पूरा हो जाता है।
- -देश, काल, वस्तु अथवा दृश्य के प्रति सत्यत्व एवम् महत्व बुद्धि नहीं रहती है।
- -‘ मेरा – तेरा, ‘हमारा – तुम्हारा” तथा ‘मैं’ और” हम में कितनी सत्यता है, अथवा कल्पना (मनोराज्य) मात्र है, यह भी पता चल जाता है।
यदि किसी ने यह विद्या पढ़ी है – फिर भी उपर्युक्त ज्ञान सम्यक् प्रकार से नहीं हुआ है, तो समझना चाहिए अन्त:करण की मलिनता के कारण बात समझ में नहीं आ रही है। पढ़ाने वाले महापुरुष का कोई दोष नहीं है।
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